शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

भवसागर अब सूख गयो है ,फ़िक्र नहीं मोहे तरणं की मीरा ने यह क्या कह दिया-भवसागर अब सूख गयो है -भवसागर था ही कहाँ ,है ही नहीं ,ज्ञान प्राप्त होने पर शेष कुछ बचता ही नहीं है। कुछ है ही नहीं जो बचे। मीरा के तो सब देह के संबंध तिरोहित हो गए थे। तभी तो वह ऐसा कह सकीं -अब कोई बंधन शेष नहीं है। भवसागर सब सूख गयो है फ़िकर नहीं मोहे तरणं की। मैं तो तर गई।

ऐसा कहते हैं ये सम्पूर्ण अखिल ब्रह्माण्ड भगवती पराम्बा के नख से उत्पन्न हुआ है।

आदि शक्ति ये ही, जग उपजाया ,

सो अवतरित तोर ,यह  माया।

 जो कुछ भी दृष्टि गोचर हो रहा है ऐसा कहते हैं यह उस पराम्बा की परममाया है। उस पराम्बा को आदि शक्ति को जानने के लिए देवीभगवती श्रीमददेवी भागवदका श्रवण करें। इस कथा के माध्यम से इसके श्रवण से ही मन बुद्धि ,चित्त ,अहंकार आदि सब शुद्ध ,बुद्ध ,प्रबुद्ध हो जाते हैं। ये चराचर जगत उस पराम्बा के द्वारा ही है।

भवसागर अब सूख गयो है ,फ़िक्र नहीं मोहे तरणं की

मीरा ने यह क्या कह दिया-भवसागर अब सूख गयो है -भवसागर था ही कहाँ ,है ही नहीं ,ज्ञान प्राप्त होने पर शेष कुछ बचता ही नहीं है। कुछ है ही नहीं जो बचे। मीरा के तो सब देह के संबंध तिरोहित हो गए थे। तभी तो वह ऐसा कह सकीं -अब कोई बंधन शेष नहीं है। भवसागर सब सूख गयो है फ़िकर नहीं मोहे तरणं की। मैं तो तर गई।



संसार के रस (काम ) को भोगने में रस तो है लेकिन उससे बड़ा ब्रह्म रस है. रामरस है।हम मनो-सपनों  को अपनी कामनाओं को साकार करने में जी रहे हैं।जबकि इससे बड़ा रस मीरा को मिला -कृष्ण रस/राम रस । और उसने गाया -

खर्च न खूटे वाको मोल न मूके ,
दिन दिन बढ़त सवायो।

ऐसी प्रसन्नता मीरा के हाथ लग गई है जो थिर नहीं है शाश्वत है। हम संसार की वस्तुओं में ही प्रसन्नता ढूंढते हैं पर  संसार में तो ऐसा कुछ है ही नहीं जो थिर न हो ,सब कुछ नश्वर है। नश्वर पदार्थ से स्थाई प्रसन्नता कहाँ से प्राप्त हो।

भगवान के महल में सत्राजित का आगमन हुआ। सूर्य ने उन्हें समन्तक मणि प्रदान की थी उनकी आराधना से प्रसन्न होकर। यह मणि सब कुछ देती है। सत्राजित को लगा, मणि मिली है मुझे इसका प्रदर्शन करना चाहिए। द्वारका वासियों ने जब सत्राजित को देखा जिसके पास मणि थी ,जो मणि लिए आ रहा था -उन्हें लगा जैसे सूर्य भगवान खुद ही चले आ रहे हैं। भगवान ने कहा यह तो मणि का प्रकाश है जो सत्राजित के पास है । ये जो आ रहा है उसका अपना प्रकाश नहीं है। भगवान ने मज़ाक में खेल -खेल में कह दिया -कहा यह मणि तो बहुत कीमती है ,तुम इसका क्या करोगे। इसे राजकोष में जमा कर दो। प्रजा के काम आएगी। सत्राजित बोला नहीं भगवान  मेरे मन में  मैं तो इसका लोभ है मैं नहीं दूंगा इसे। बड़ी कठिनाई से मिली है मुझे।

उसने मणि अपने भाई प्रसेनजित  को दी। वह आखेट करने ,मृगया करने चला गया। सिंह का शिकार करने चला गया। शेर ने उस पर प्रहार किया। उसकी  हत्या कर दी। मणि उसके हाथ  से चली गई। सिंह के पंजों में फंसी   मणि जामवंत ने देखी ।इतनी महंगी चीज़ इसके पंजों में। और जामवंत ने सिंह से मणि को प्राप्त कर लिया।

प्रजाजनों ने सोचा मणि भगवान कृष्ण ने ली है। प्रसेनजित की हत्या भी भगवान ने ही की है और मणि प्राप्त कर ली है।  चोरी का इल्ज़ाम  लग गया कृष्ण पर।ये प्रजा किसी की सगी नहीं होती है। इसने निर्दोष (अच्युत )भगवान कृष्ण को भी नहीं छोड़ा।द्वारकावासी गुरुदेव के पास गए। गुरुदेव ने कहा कृष्ण तो साक्षात भगवान हैं ,  तुम चिंता मत करो। बोले वासुदेव मैं अपने पुत्र वसुदेव की चिंता कर रहा हूँ। वह मेरा पुत्र भी तो है।भले मैं जानता हूँ कि वह ब्रह्म भी है।

 गुरुदेव के कहने पर देवी भागवद बैठाई गई। देविभागवद से शीघ्र फल प्राप्त होते हैं। कृष्ण लौट आये। साथ में जामवंती भी थी -लेकिन इस बीच क्या हुआ था ?

भगवान ने अपने दोस्तों से कहा था -मैं अभी आता हूँ। उस गुफा में जाता हूँ। पन्द्रह  दिन में लौट आऊंगा। भगवान ने गुफा के बाहर रक्त  के धब्बे देखे।प्रसेनजित की लाश पड़ी देखी  गुफा के बाहर भगवान ने.भगवान गुफा के अंदर चले गए। वहां उन्होंने जामवंत को देखा। जामवंत के पुत्र हाथ में मणि को देखा। जामवंत के बेटे के साथ भगवान का बड़ा भीषण युद्ध हुआ जो समाप्त ही होने में , नहीं आ रहा था।  परन्तु जामवंत ने जब उनकी आँख में झाँक कर देखा तो पता चला अरे -ये तो मेरे भगवान हैं।

 एक महीना हो गया था भगवान नहीं लौटे।पूरी प्रजा अधीर हो गई ,कृष्ण नहीं आये।

जामवंत सोच रहा है -ये ही तो स्वयं परशुराम थे । बावन अवतार के बावन थे। मैं मूरख इनसे लड़ था। गिर पड़ा जामवंत भगवान के चरणों में -आँखों में आंसू आ गए -मैं अपने भगवान से ही लड़ रहा था। जामवंत ने प्रायश्चित किया। भगवान से उसने माफ़ी मांगी। और मणि ही नहीं भगवान को अपनी कन्या जामवंती    भी दे दी। वानर रूप था जामवंती  का पर भगवान ने फैला दिया बहुत सुन्दर है। रुक्मणी जी को भी ईर्ष्या हो गई। पर वह तो वैसी नहीं थी। जबकि द्वारिका की सभी रानियां बड़ी सुन्दर थीं। वह बेचारी इसीलिए अपना मुख नहीं दिखा रही थी। घूंघट काढ़े हुए थी। रुक्मणी के जामवंती  ने  पैर छूए।रुक्मणी पटरानी थीं।आशीर्वाद देते हुए   कहा-जा  तू मेरी जैसी हो जा। रुक्मणी ने सोचा मुझसे ज्यादा सुन्दर हुई तो मेरे जैसी ही तो हो जाएगी।  जामवंती ने घूंघट खोला ,जामवंती रुक्मणी जैसी ही निकलीं।

शीघ्र फलदायनी देवीभागवद पुराण से कुछ अंश  

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

इस वैष्णवी सृष्टि में भगवान ने हर चीज़ के जोड़े बनाये हैं। सुख है तो दुःख भी है ,लाभ है तो हानि भी है।यहां भी देवीभागवद्पुराण में आठ राक्षषों की कथा आई हैं । ये जोड़े हैं -मधु -केटव ,रक्तबीज -महिषासुर , चंड ,मुंड और शुम्भ -निशुम्भ। यहां भी जोड़ा जोड़ा है -दो दो राक्षषों का जोड़ा है। किसी से राग अनुराग का होना ही मधु है द्वेष का होना केटव है। किसी ने कोई कड़वी बात कह दी वह केटव हो गया। मद और मत्सर -महिषासुर और रक्बीज़ हैं। चंड -मुंड क्या हैं -लोभ और मोह और शुम्भ -निशुम्भ काम और क्रोध हैं। अपने अंदर के दो दो विकारों को मारना है।

संसार की माया जब आपको घेरने लगे तब इस महामाया को याद कर लेना। महामाया के सामने माया की एक नहीं चलती। सुद्युम्न को लेकर श्राद्ध देव गुरु वशिष्ठ को साथ लेकर देवी भगवती पराम्बा जगदम्बा के पास पहुंचे। जय सर्व सुर आराधे। बोले श्राद्धदेव -माँ हम आपकी शरण में आये हैं। आप तो चारों पदार्थ दे सकती हो धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष। माँ ने पूछा क्या चाहिए। माँ श्रद्धदेव  ने कहा मेरे पुत्र को सदा के लिए पुरुष  बना दो।

देवी के दो ही रूप हैं एक कन्या और दूसरा ज्योति।विधि का विधान अटल है ब्रह्माजी ने जो रच दिया कोई उसे बदल नहीं सकता लेकिन माँ पराम्बा ऐसा कर सकतीं हैं।

किसी नाल राग नहीं ,किसी नाल द्वेष नहीं।

ज़िंदगी आनंद मेरी, कोई भी  कलेश नहीं।

तुलसी मीठे वचन से ,सुख उपजै ,चहुँ ओर ,

वशीकरण एक मन्त्र है ,परिहर वचन कठोर।

इस वैष्णवी सृष्टि में भगवान ने हर चीज़ के जोड़े बनाये हैं। सुख है तो दुःख भी है ,लाभ है तो हानि  भी है।यहां भी देवीभागवद्पुराण में आठ राक्षषों   की कथा आई हैं । ये जोड़े हैं -मधु -केटव ,रक्तबीज -महिषासुर , चंड ,मुंड और शुम्भ -निशुम्भ। यहां भी जोड़ा जोड़ा है -दो दो राक्षषों  का जोड़ा है।

किसी से राग अनुराग  का होना ही मधु है द्वेष का होना केटव है। किसी ने कोई कड़वी बात कह दी वह केटव हो गया।

मद और मत्सर -महिषासुर और रक्बीज़ हैं। चंड -मुंड क्या हैं -लोभ और मोह और  शुम्भ -निशुम्भ काम और क्रोध हैं।

अपने अंदर के दो दो विकारों को मारना है।

ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय ,

औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय।

ऐसा बोलो ,सामने वाले को ऐसी शान्ति मिले आनंद आ जाए -कहे क्या वाणी है कितना सुन्दर बोलता है। आज अंदर मिठास ज्यादा हो गई है। उतनी ही जबान कड़वी होती जा रही है। जबान में मिठास नहीं रही।भारत में ४० फीसद से ज्यादा लोग डायबेटिक हैं अंदर की मिठास लिए हैं। जबान के कड़वे हैं।  दोनों की उत्पत्ति कहाँ से हुई कानों से। जो कान अच्छा सुनते हैं किसी की स्तुति करते हैं वह मधु ,जो निंदा करते हैं वह केटव।

सृष्टि का लय हो चुका है। भगवान विष्णु वटपत्र पर लेटे हुए सोच रहे हैं। हमारी उत्पत्ति कैसे हुई ?क्या है प्रयोजन हमारी उत्त्पत्ति का ?
आप जानते हैं -भगवान विष्णु क्षीर सागर में शेषशैया पर लेटे  रहते हैं। जल तो एक रस है इसको धारण करने वाला पात्र कौन सा है -भगवान सोचने लगे।
तभी माँ पराम्बा प्रकट हुईं। उन्होंने वह आधा श्लोक सुना दिया जिसमें पूरी देवीभागवद पुराण समाहित थी और कहा जब इस सृष्टि में कुछ भी नहीं था तब भी हम थीं। मैं ही इस सृष्टि का आदि स्रोत हूँ। सनातन हूँ।जब कुछ भी शेष नहीं रहता तब भी हम  होती हैं ।

 सत्संग के फूल : देविभागवदपुराण से कुछ अंश 



15:2






तैतीस कोटि देव हैं साक्षी , चारा चोर घोटाले तैतीस , कथनी करनी भिन्नम -भिन्न।

बिहार के चुनावी समर पर पढ़िए :डॉ. वागीश मेहता जी की रचना

मुख में आ बैठा शैतान ,

वाणी पर जिन्ना का जिन्न ,

इनसे बचना मित्र अभिन्न।
           (२)
घूम रहे ठग अपने अपने ,

ऐसा बना महाठगबंधन ,

भीतर से चित महामलिन।

         (३)

तैतीस कोटि देव हैं साक्षी ,

चारा चोर  घोटाले तैतीस ,

कथनी करनी इनकी भिन्न।

        (४)

काश कहीं ऐसा न हो ,

जीत यदि न मिली साफ़ तो ,

रोयेंगे मिल दीन विपन्न।
         (५)
तैतीस कोटि देव हैं साक्षी ,

चारा चोर घोटाले तैतीस ,

कथनी करनी भिन्नम -भिन्न।

डॉ। वागीश मेहता
१२१८ ,अर्बन इस्टेट
गुडगाँव ,हरियाणा ,१२२ ००१
भारत 

मुख में जो शैतान लिए हैं , आतों में जिन्ना का जिन्न , उनसे बचना (वसुधा के) मित्र अभिन्न।

मुख में जो शैतान लिए हैं ,

आतों में जिन्ना का जिन्न ,

उनसे बचना (वसुधा के) मित्र अभिन्न।

सही कहें हैं शाह अमित ,

हार गया यदि मोदी भैया ,

सब रोयेंगे दीन विपन्न।

घूम रहे  , महागठबंधन के ठग  ,

चित्त मलिन और खिन्न खिन्न।

सब लेकर चित्त मलिन और खिन्न

तैंतीस कोटि देवता अपने ,

उनके (तैतीस) घोटाले अविछिन्न ,

चारा चोर जहां पर बैठे,

 करनी उनकी नहीं   विभिन्न। 

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

दोनों ग्रन्थ मिरर इमेज हैं एक दूसरे के जैसे शरीर के बाएं और दाएं अंग। । श्रीमद्भागवदपुराण और श्रीमद्देवीभागवद पुराण एक ही हैं । केवल कल्प भेद से फर्क आ गया है।एक शाश्वत कल्प की कथा है एक पदम कल्प की कथा है। कल्प भेद से सृष्टि के बनने में थोड़ा थोड़ा अंतर आ जाता है।

अहंकार अति दुखद डमरुवा

डमरू की ध्वनि की तरह बढ़ता ही जाता है अहंकार। इसी के बढ़ने से रावण और कंस मारे जाते हैं जबकि दोनों में बल कोई काम न था। अर्थात बहुत अधिक था।

जय बोलने से विजय होती है। जय बोलने से मन एकाग्र होता है। श्रेष्ठ जनों की देवकुल की जय बोलनी चाहिए।

देवी भागवद का सबसे पहले आधा श्लोक स्वयं पराम्बा ने विष्णु को सुनाया था । विष्णु ने जस का तस आधा श्लोक ब्रह्मा को ,ब्रह्मा ने नारद को और नारदजी ने व्यास जी को सुनाया उनके ये पूछने पर कि मेरा मन खिन्न और उदास रहता है। आगम निगम (वेद और पुराण )लिखने के बाद। वेदों का विभाजन करने के बाद भी। क्या कारण है ऋषिवर इस बे -चैनी का यही प्रश्न पूछा था व्यासदेव ने ऋषि नारद से।

एक ही शक्ति है जो भिन्न रूपों में भिन्न समयों में अनेक बार प्रकट हुई है। उस शक्ति की उपासना तो आपने की नहीं -नारद जी बोले।

केवल तीन ही ग्रन्थ ऐसे हैं जिनके शुरू में और जिनसे पहले 'श्रीमद 'शब्द आता है -श्रीमदभगवदगीता ,श्रीमद्भागवद्पुराण ,और श्रीमद्देवीभागवद  पुराण। कभी आपने सोचा है इसका कारण क्या है ?

ये तीनों ही महाग्रंथ (शब्द वांग्मय ,वांग्मय अवतार )मुख से उच्चारित हुए हैं। गीता अर्जुन को कृष्ण ने सुनाई है ,श्रीकृष्ण ने भागवद्पुराण व्यास को और फिर व्यासदेव ने अपने पुत्र शुकदेव को सुनाई है। देवी भगवती ने स्वयं जो आधा श्लोक बोला वह श्रीमद्देवीभागवद्पुराण हो गया।

मुझे किसने पैदा किया ?सृष्टि के विलय के बाद विष्णु ने यह प्रश्न पराम्बा से पूछा था। प्रत्युत्तर में उन्होंने यही आधा श्लोक सुनाया था। जब वटपत्र(वट  वृक्ष के पात पर )बालरूप में लेते  भगवान विष्णु ने पूछा था -मेरी रचना किसने की।

व्यास जी ने जैसे ही ये आधा श्लोक नारद जी के मुख से सुना  उनका मन स्थिर हो गया। कलम लेकर रचना करने लगे। बारह स्कन्द और  ३१८ अध्याय में  बस उन्होंने इस १८ हज़ार श्लोक वाले ग्रन्थ की रचना कर दी। और लिख दिया इसके श्रवण से बुद्धिहीन को बुद्धि मिल जाएगी ,संतान हीन को संतान ,और धनहीन को धन , देवीभगवती  की कृपा से।

दोनों ग्रन्थ  मिरर इमेज हैं एक दूसरे के जैसे शरीर के बाएं और दाएं अंग। । श्रीमद्भागवदपुराण  और श्रीमद्देवीभागवद पुराण एक ही हैं । केवल कल्प भेद से फर्क आ गया है।एक शाश्वत कल्प की कथा है  एक पदम कल्प की कथा है। कल्प भेद से सृष्टि के बनने में थोड़ा थोड़ा अंतर आ जाता है।

इस कथा के श्रवण से वासुदेव को अपना खोया हुआ पुत्र (कृष्ण )मिल जाता है।

 नारद जी बता रहे हैं जनमेजय को - श्राद्ध देव नाम के ब्राह्मण थे उनकी पत्नी का नाम था श्रद्धा। दोनों ने ब्राह्मणों को बुलाकर पुत्रयेष्ठि यज्ञ कराया। संतान नहीं थी। श्राद्ध देव चाहते हैं मेरे यहां पुत्र ही हो। श्राद्ध देव की पत्नी माँ भगवती से प्रेम करतीं हैं वे चाहतीं हैं घर में उनका ही प्रतिरूप  बेटी हो। पत्नी ने ब्राह्मणों को अलग ले जाकर कहा मैं दो गुणी दक्षिणा दूंगी।लड़की होनी चाहिए।
यज्ञ पूरा हो गया। प्रसव का समय आ गया। पुत्री ही पैदा हुई श्राद्ध देव को। देवी सबको पुत्र ही देवे तो सृष्टि कैसे चले।
श्राद्ध देव अपने गुरु वशिष्ठ देव के पास गए -महाराज इसे पूत बना दो। वशिष्ठ बोले जो हो गया सो हो गया ईश्वर इच्छा है। श्राद्ध देव नहीं माने एक और यज्ञ किया गया और महालक्ष्मी का कायानतरण पुत्र में हो गया।

लिंग परिवर्तन का शरीरविज्ञान सतयुग में मौजूद था। देवीभागवद पुराण सतयुग की ही कृति है।



https://www.youtube.com/watch?v=9G7gzFn2rt4

DEVI BHAGWAT-10

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नारद जी बता रहे हैं जनमेजय को - श्राद्ध देव नाम के ब्राह्मण थे उनकी पत्नी का नाम था श्रद्धा। दोनों ने ब्राह्मणों को बुलाकर पुत्रयेष्ठि यज्ञ कराया। संतान नहीं थी। श्राद्ध देव चाहते हैं मेरे यहां पुत्र ही हो। श्राद्ध देव की पत्नी माँ भगवती से प्रेम करतीं हैं वे चाहतीं हैं घर में उनका ही प्रतिरूप बेटी हो। पत्नी ने ब्राह्मणों को अलग ले जाकर कहा मैं दो गुणी दक्षिणा दूंगी।लड़की होनी चाहिए। यज्ञ पूरा हो गया। प्रसव का समय आ गया। पुत्री ही पैदा हुई श्राद्ध देव को। देवी सबको पुत्र ही देवे तो सृष्टि कैसे चले। श्राद्ध देव अपने गुरु वशिष्ठ देव के पास गए -महाराज इसे पूत बना दो। वशिष्ठ बोले जो हो गया सो हो गया ईश्वर इच्छा है। श्राद्ध देव नहीं माने एक और यज्ञ किया गया और महालक्ष्मी का कायानतरण पुत्र में हो गया। लिंग परिवर्तन का शरीरविज्ञान सतयुग में मौजूद था। देवीभागवद पुराण सतयुग की ही कृति है।

अहंकार अति दुखद डमरुवा

डमरू की ध्वनि की तरह बढ़ता ही जाता है अहंकार। इसी के बढ़ने से रावण और कंस मारे जाते हैं जबकि दोनों में बल कोई काम न था। अर्थात बहुत अधिक था।

जय बोलने से विजय होती है। जय बोलने से मन एकाग्र होता है। श्रेष्ठ जनों की देवकुल की जय बोलनी चाहिए।

देवी भागवद का सबसे पहले आधा श्लोक स्वयं पराम्बा ने विष्णु को सुनाया था । विष्णु ने जस का तस आधा श्लोक ब्रह्मा को ,ब्रह्मा ने नारद को और नारदजी ने व्यास जी को सुनाया उनके ये पूछने पर कि मेरा मन खिन्न और उदास रहता है। आगम निगम (वेद और पुराण )लिखने के बाद। वेदों का विभाजन करने के बाद भी। क्या कारण है ऋषिवर इस बे -चैनी का यही प्रश्न पूछा था व्यासदेव ने ऋषि नारद से।

एक ही शक्ति है जो भिन्न रूपों में भिन्न समयों में अनेक बार प्रकट हुई है। उस शक्ति की उपासना तो आपने की नहीं -नारद जी बोले।

केवल तीन ही ग्रन्थ ऐसे हैं जिनके शुरू में और जिनसे पहले 'श्रीमद 'शब्द आता है -श्रीमदभगवदगीता ,श्रीमद्भागवद्पुराण ,और श्रीमद्देवीभागवद  पुराण। कभी आपने सोचा है इसका कारण क्या है ?

ये तीनों ही महाग्रंथ (शब्द वांग्मय ,वांग्मय अवतार )मुख से उच्चारित हुए हैं। गीता अर्जुन को कृष्ण ने सुनाई है ,श्रीकृष्ण ने भागवद्पुराण व्यास को और फिर व्यासदेव ने अपने पुत्र शुकदेव को सुनाई है। देवी भगवती ने स्वयं जो आधा श्लोक बोला वह श्रीमद्देवीभागवद्पुराण हो गया।

मुझे किसने पैदा किया ?सृष्टि के विलय के बाद विष्णु ने यह प्रश्न पराम्बा से पूछा था। प्रत्युत्तर में उन्होंने यही आधा श्लोक सुनाया था। जब वटपत्र(वट  वृक्ष के पात पर )बालरूप में लेते  भगवान विष्णु ने पूछा था -मेरी रचना किसने की।

व्यास जी ने जैसे ही ये आधा श्लोक नारद जी के मुख से सुना  उनका मन स्थिर हो गया। कलम लेकर रचना करने लगे। बारह स्कन्द और  ३१८ अध्याय में  बस उन्होंने इस १८ हज़ार श्लोक वाले ग्रन्थ की रचना कर दी। और लिख दिया इसके श्रवण से बुद्धिहीन को बुद्धि मिल जाएगी ,संतान हीन को संतान ,और धनहीन को धन , देवीभगवती  की कृपा से।

दोनों ग्रन्थ  मिरर इमेज हैं एक दूसरे के जैसे शरीर के बाएं और दाएं अंग। । श्रीमद्भागवदपुराण  और श्रीमद्देवीभागवद पुराण एक ही हैं । केवल कल्प भेद से फर्क आ गया है।एक शाश्वत कल्प की कथा है  एक पदम कल्प की कथा है। कल्प भेद से सृष्टि के बनने में थोड़ा थोड़ा अंतर आ जाता है।

इस कथा के श्रवण से वासुदेव को अपना खोया हुआ पुत्र (कृष्ण )मिल जाता है।

 नारद जी बता रहे हैं जनमेजय को - श्राद्ध देव नाम के ब्राह्मण थे उनकी पत्नी का नाम था श्रद्धा। दोनों ने ब्राह्मणों को बुलाकर पुत्रयेष्ठि यज्ञ कराया। संतान नहीं थी। श्राद्ध देव चाहते हैं मेरे यहां पुत्र ही हो। श्राद्ध देव की पत्नी माँ भगवती से प्रेम करतीं हैं वे चाहतीं हैं घर में उनका ही प्रतिरूप  बेटी हो। पत्नी ने ब्राह्मणों को अलग ले जाकर कहा मैं दो गुणी दक्षिणा दूंगी।लड़की होनी चाहिए।
यज्ञ पूरा हो गया। प्रसव का समय आ गया। पुत्री ही पैदा हुई श्राद्ध देव को। देवी सबको पुत्र ही देवे तो सृष्टि कैसे चले।
श्राद्ध देव अपने गुरु वशिष्ठ देव के पास गए -महाराज इसे पूत बना दो। वशिष्ठ बोले जो हो गया सो हो गया ईश्वर इच्छा है। श्राद्ध देव नहीं माने एक और यज्ञ किया गया और महालक्ष्मी का कायानतरण पुत्र में हो गया।

लिंग परिवर्तन का शरीरविज्ञान सतयुग में मौजूद था। देवीभागवद पुराण सतयुग की ही कृति है।



https://www.youtube.com/watch?v=9G7gzFn2rt4

DEVI BHAGWAT-10

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आप शैव हैं ,शौर हैं ,वैष्णव हैं या गाणपत्य माँ की आराधना तो आपको करनी ही पड़ेगी।माँ का उपासक शाक्त बनना ही पड़ेगा। षोडश संस्कारों में बालक का यगोपवीत संस्कार होता है जिसमें गायत्री मंत्र की सबसे पहले दीक्षा दी जाती है।

गायत्री माँ की ही उपासना है। विश्वामित्र ने शक्ति की उपासना की। 
वशिष्ठ जी  ने तो अपने बेटे का ही
 नाम शक्ति रख दिया। शक्ति के पराशर हुए पराशर के वेद व्यास।वेदव्यास के शुकदेव ,शुकदेव के गौड़पादाचार्य ,गौड़पादाचार्य के शंकराचार्य। सबके सबने माँ भगवती की उपासना की है। 

श्रीमद देवीभागवद पुराण 

इस सृष्टि की रचना देवी पराम्बा ने की अपनी (योग )माया से की थी 

सकल पदार्थ हैं जग माहिं ,

कर्महीन कछु पावत नाहिं।

कथा सुनने तो आपको खुद ही आना पड़ेगा। इतना पुरुषार्थ (सेल्फ एफर्ट )तो आपको करना ही पड़ेगा। और एक बार नहीं अनेक बार आप आयेंगे तभी नया संस्कार पड़ेगा।


बिन सत्संग विवेक न होई।

राम कृपा बिन सुलभ न सोई

जब बहुकाल करे सत्संगा ,

तब होवे सब संशय ,भंगा।

हनुमान को अपनी भूली हुई शक्ति का स्मरण जामवंत न कराया था। वानर के रूप में ऋषियों के आश्रम में खुराफात मचाते थे ,वानर प्रवृत्ति थी। ऋषियों के शाप से हनुमान की शक्ति क्षीण हो गई। हनुमान जी ने क्षमा माँगी ऋषियों से खा गलती हो गई ऋषियों ने कहा -ठीक है कोई याद दिलाएगा तो याद भी आ जाएगी।
गणपति ,विष्णु ,शिव ,पराम्बा आदि शक्ति ,सूर्यनारायण हम इन पांच प्रमुख देवों  की उपासना बिम्ब रूप में भी और पिंडी रूप में भी होती है।

आप शैव हैं ,शौर हैं ,वैष्णव हैं या गाणपत्य माँ की आराधना तो आपको करनी ही पड़ेगी।माँ का उपासक शाक्त बनना ही पड़ेगा। षोडश संस्कारों में बालक का यगोपवीत संस्कार होता है जिसमें गायत्री मंत्र की सबसे पहले दीक्षा दी जाती है।

गायत्री माँ की ही उपासना है। विश्वामित्र ने शक्ति की उपासना की। 
वशिष्ठ जी  ने तो अपने बेटे का ही नाम शक्ति रख दिया। शक्ति के पराशर हुए पराशर के वेद व्यास।वेदव्यास के शुकदेव ,शुकदेव के गौड़पादाचार्य ,गौड़पादाचार्य के शंकराचार्य। सबके सबने माँ भगवती की उपासना की है। 

श्रीमददेवीभागवद पुराण सतयुग का ग्रन्थ है इसीलिए आज इसकी चर्चा कम है। चर्चा श्रीकृष्ण की आज सबसे ज्यादा है क्योंकि वह द्वापर के देवता हैं और द्वापर को गए अभी कोई सवा पांच हज़ार साल ही तो हुए हैं। तो भी 'श्रीजी' के बिना ,राधा के बिना ,श्रीकृष्ण अधूरे हैं काले कलूटे ही रह जाते हैं।कृष्ण ही रह जाते हैं।  राधा ने दी है उन्हें 'श्री ',राधा ने दी है उन्हें आभा। वृन्दावन में आपको रिक्शेवाला भी राधा -राधा कहते ही मिलेगा। कृष्ण तो अपने आप चले आते हैं पीछे पीछे। 


 



भारतीय राजनीति का पंचक दोष

डरे हुए अपनी करनी से ,खुद से भी घबराये लोग ,

कैसे करें विकास की बातें ,ये भ्रष्टाचारी छाये लोग। 

जाति और मज़हब का ,छौंका हुप हुप करते आये लोग ,

भाड़ में जाएँ देश के वासी ,ऐसे ये कुत्ताए लोग। 



जाति  में  उपजाति ,बाँटें ललवे  नीतू आये लोग ,

जीने और मरने की हद तक ,ऐसे ये भन्नाए लोग। 

फतवों की बैसाखी मांगें ,कज़रे कारे चुंधियाए लोग ,

पूंछ हिलाते वोट की खातिर ,ऐसे शातिर आये लोग। 

आपस में जूतम पैजारी ,पंचक दोषी आये लोग ,

खुद न करेंगे न करने देंगे ,गद्दारी होड़ में आये लोग। 

संदर्भ -सहित व्याख्या :

दिल्ली में केजर (कंजर्वाल ) से पिटने के बाद कांग्रेस को इस बात का परम संतोष था ,चलो हमारी तो फूटीं सो फूटीं मोदी की भी फूंटी। वही कांग्रेस ,केजर ,नीतीश ,लालू और लेफ्टीया (लहुरङ्गी लेफ्टिए )के साथ मिलके अब विदेशों में देश की छवि खराब कर रहें हैं।

भारत की राजनीति का पंचक दोष हैं ये पांच -जो मोदी के 'नारे न खाऊँगा न खाने दूंगा' को शीर्षासन करवा के कह रहे  हैं -'न कुछ अच्छा करेंगे ,न करने देंगें।' 

इनके साथ आयु में सत्तरोत्तरी वे (गए बीते बुढ़ाए ,सठियाए )लोग भी लग गए हैं जो अब तक लाभ के पदों पर चांदी कूट रहे थे। कुछ साहित्यिक चिरकुट चरण -चाटू  जो सत्ता की चाकरी करके इनाम पा गए थे उन्होंने भी इनकी पूंछ पकड़ ली है। 

मोदी की सिंह गर्जना से घबराए ये  लोग अब इकठ्ठे हो रहे हैं। भले ही पहले ये एक दूसरे पर खों खों करते थे। काटने को दौड़ते थे। एक दूसरे पर लतियाते थे लानत फैंकते थे। तमाम बुरी तरह से डरे हुए ये लोग डंडे लेकर हाथ में लेकर निकल आये  हैं  और बला का शोर मचाते हैं मोदी को देख कर।  वोटों  के लिए इन्होंने जो जाति के अंदर उपजाति और मज़हब का कालकूट विष इकठ्ठा किया है वे इस हलाहल को खुद ही पीकर अपनी मौत मारे जायेंगे।   भारतीय राजनीति में  पंचक का पातक फैलाने वाले ये पाँचों गिरोह  भारतीय प्रतिष्ठा को धूमिल करने के लिए   आत्महत्या करने को भी तैयार हो जाएंगे।

ये उस समय हो रहा है जब भारत वर्ल्ड बैंक की रेटिंग में १२ पायदान चढ़ गया है। निवेश फ्रेंडली पायदानों पर खड़ा है और ऊपर चढ़ने को तैयार ,नित नए मनसूबे लिए।  








बन पुत्र अंजना आया था , संग भीम देव को लाया था। बंदर दिल्ली से आया था , पीऍमओ ने भिजवाया था। उद्देश्य :बंदर ये देखने आया था ,कहीं बूथ कैप्चरिंग तो नहीं ,वोट तो नहीं छापे जा रहे।शौरी को ये बतलाने आया था उतना शिथिल नहीं हुआ है पीएमओ जितना आप समझे बैठे थे।


राम दूत मैं मातु जानकी , सत्य शपथ करुणानिधान की


वो वोट डालने आया था ,

बंदर को मोदी भाया था। 

लालू को (बहुत )भौत खिजाया था ,

नीतीश को भी भरमाया था। 

बन पुत्र अंजना आया था ,

संग भीम देव को लाया था। 

बंदर दिल्ली से आया था ,

पीऍमओ ने भिजवाया था। 

उद्देश्य :बंदर ये देखने आया था ,कहीं बूथ कैप्चरिंग तो नहीं ,वोट तो नहीं छापे जा रहे।शौरी को ये बतलाने आया था उतना शिथिल नहीं हुआ है पीएमओ जितना आप समझे बैठे थे।  

बुधवार, 28 अक्तूबर 2015

राम दूत मैं मातु जानकी , सत्य शपथ करुणानिधान की वो वोट डालने आया था , बंदर को मोदी भाया था। लालू को (बहुत )भौत खिजाया था , नीतीश को भी भरमाया था।


राम दूत मैं मातु जानकी , सत्य शपथ करुणानिधान की


वो वोट डालने आया था ,

बंदर को मोदी भाया था। 

लालू को (बहुत )भौत खिजाया था ,

नीतीश को भी भरमाया था। 

बन पुत्र अंजना आया था ,

संग भीम देव को लाया था। 

बंदर दिल्ली से आया था ,

पीऍमओ ने भिजवाया था। 

उद्देश्य :बंदर ये देखने आया था ,कहीं बूथ कैप्चरिंग तो नहीं ,वोट तो नहीं छापे जा रहे।शौरी को ये बतलाने आया था उतना शिथिल नहीं हुआ है पीएमओ जितना आप समझे बैठे थे।  

लहू -रंगी जिनके मालिक हैं , सब भकुओं की दूकानें हैं।

दूकानें कई क़दीमी हैं ,

गाहक जिनके दीवाने हैं।

ये फेसबुकिया दूकानें हैं।

कुछ दूकानों पर बोर्ड लगे ,

कुछ बिना बोर्ड दूकाने हैं ॥

          (२)

कुछ पर सेकुलर सामान सजे ,

लहू -रंगी जिनके मालिक हैं ,

सब भकुओं की दूकानें हैं।

बाज़ारू अर्थव्यवस्था के कुल -सौ-एक ठिकानें हैं ,

खुलकर आते जहां देश भक्त  ,सब बोर्ड लगी दूकानें हैं।

        (3)

दूकाने कई सदाचारि ,कदाचारी कई दुकानें हैं ,

प्रभु गाहक रहना सावधान कई साइबर कोर्ट सुहाने है,

चेहरे जाने पहचाने हैं कई अपने कई बे -गानें हैं।

क़दीमी =मशहूर ,जैसे रेवाड़ी की मशहूर रेवड़ी की दूकान ,मिगलानी चाय वाला ,मारवाड़ी रबड़ी -बादाम

गाहक =ग्राहक ,कस्टमर

शिव सोचने लगे इसे तीसरे नेत्रों से भी देखूं। तीसरा नेत्र शिव ने खोला -वह देवी भस्म होकर राख का ढेर हो गई। शिव ने तीन ढेरियां बनाई। एक से ब्रह्माणी प्रकट हो गईं दूसरी ढ़ेरी से रमा और तीसरी से रुद्राणी (गौरी ,भवानी )फिर भी कुछ भस्म बच गई जो शिव से बटोरी ही न गई भगवानशिव ने उसे फूंक मार कर उड़ा दिया। उसी से संसार की समस्त नारियां बनी हैं।इनमें अलग गुण हैं। देवत्व है इनमें।ये मनुष्य की जाति से अलग हैं।

स्त्री अलग जात (Species)है वह मनुष्यों में नहीं ,उसमें दैवीय गुण हैं।

कथा है एक बार ब्रह्मा विष्णु महेश को  पराम्बा के रूप में एक परम ज्योति दिखलाई दी।पराम्बा प्रकट हुईं।  वे अत्यंत तेजरूपा ,जननी स्वरूप दिखलाई दीं त्रिदेवों को।  उनकी दिव्यता और परम तेज  को देख कर त्रिदेव अभिभूत हो गए। इन चर्म नेत्रों से हमें  वह पदार्थ ही दिखाई देते हैं जगत के जो अस्थाई हैं नश्वर हैं। मृत्यु के मुख में हैं वैसे ही जैसे सांप के मुख में मेंढक। संसार की वास्तविकता ,वस्तुओं का यथार्थ ,सत्य हमें दिखलाई नहीं देताहै इन नेत्रों से। वह अंतर के नेत्रों से ही दिखलाई देता है।

 इस परमज्योति स्वरूपा ने त्रिदेवों से पूछा -मेरा वरण  कौन करेगा। ब्रह्मा ने पलकें झुका लीं ,विष्णु ने भी सकुचाकर आँखें झुका लीं। नीचे   की और देखने लगे। शिव ने साहस जुटा कर कहा। मैं आपका वरण करूंगा ,पर मेरी एक शर्त है। आप मुझे ये तीसरा नेत्र दे देवें जो आपके मस्तक पर शोभित है। मैंने आज तक दो ही नेत्र वाले देखें हैं।पराम्बा तैयार हो गईं। शिव के पास चला आया वह तीसरा नेत्र।

देवी ने तीसरा नेत्र शिव को दे दिया। शिव ने अपने दोनों नेत्रों से देखा यह तो कोई अनिंद्य स्त्री है।जिसमें अद्भुत लावण्य है ,कल्याणकारी शक्तियां हैं जिसके पास। सिर्फ संहार नहीं है निर्माण भी है।

 शिव सोचने लगे इसे तीसरे नेत्रों से भी देखूं। तीसरा नेत्र शिव ने खोला -वह देवी भस्म होकर राख का ढेर हो गई। शिव ने तीन ढेरियां बनाई। एक से ब्रह्माणी प्रकट हो गईं  दूसरी ढ़ेरी से रमा और तीसरी से रुद्राणी (गौरी ,भवानी )फिर भी कुछ भस्म बच गई जो शिव से बटोरी ही न गई भगवानशिव ने उसे फूंक मार कर उड़ा दिया। उसी से संसार की समस्त  नारियां बनी हैं।इनमें अलग गुण हैं। देवत्व है इनमें।ये मनुष्य की जाति से अलग हैं।   

विशेष :विष्णु वध करते हैं शिव संहार करते हैं। वध प्रायश्चित का मौक़ा देता है। तीन शक्तियां बतलाई गईं हैं :

ज्ञान शक्ति ,इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति।

ज्ञानं प्राप्त होने के बाद कुछ बचता नहीं है। कुछ है ही नहीं इस नश्वर संसार में। एक प्रतीति भर है। एक अपीरीएंस ही तो है। 

अयोध्या में पातक काल है।राजा दशरथ का शरीर नहीं रहा। अयोध्या में अनाथता है। सुमंत अचेत हो गए हैं। वशिष्ठ तब राजपत्र उठाते हैं। लिखते हैं -प्रिय भरत (आशीष नहीं लिखते )अयोध्या में शीघ्र लौटो। अब वह ये भी नहीं लिख सकते -आपका शुभचिंतक। वह इतना ही लिखते हैं -आपका गुरु वशिष्ठ। सूतक काल में और कुछ लिख नहीं सकते थे। न आशीष न शुभेच्छु।



ईश्वर अंश जीव अविनाशी ,

चेतन अमल , सहज सुख राशि।

आप नहीं बदलें हैं आपकी देह बदली है जो परिवर्तन दिखाई दे रहा है वह देह का है। आप आनंद के धाम हैं। जिस दिन यह पता चल जाता है आप अपने मूल स्वभाव में लौट आते हैं। साधना का एक फल है द्व्न्द्व रहित हो जाना। जगदानन्द विषयानन्द एक पल का है। आनंद आपका स्वभाव है। ऐसे महापुरुष जिन्हें  द्व्न्द्व नहीं छूते ,प्रत्येक जीव के हित में जो रहते हैं जिनमें समता सिद्ध हो गई ऐसे महापुरुष  ही आपातकाल में  हमारे काम आते हैं।

रूप और नाम से ही इस जगत की उत्पत्ति हुई है। आप इन्द्रियों के आश्रय में जीने वाले प्राणि हैं।

अयोध्या में पातक काल है।राजा दशरथ का शरीर नहीं रहा। अयोध्या में अनाथता है। सुमंत अचेत हो गए हैं। वशिष्ठ तब राजपत्र उठाते हैं। लिखते हैं -प्रिय भरत (आशीष नहीं लिखते )अयोध्या में शीघ्र लौटो। अब वह ये भी नहीं लिख सकते -आपका शुभचिंतक। वह इतना ही लिखते हैं -आपका गुरु वशिष्ठ। सूतक काल में और कुछ लिख नहीं सकते थे।

न आशीष न शुभेच्छु।

भरत बार बार एक सपना देखते हैं। पूरी अयोध्या में अन्धेरा है। एक सुरंग है। वह राम के पीछे भागते हैं। भैया रुको रुको स्वप्न में वह जितना राम के नजदीक जाते हैं वह दूर दूर होते जाते हैं। लक्षमण को कहते हैं -भाई मेरी रक्षा करो। लक्ष्मण की आँखों में एक अविश्वास है। दूरी दिख रही है वह पिता को पुकारते हैं। पिता मेरी रक्षा करो। स्वप्न में पिता सिरहीन दिखलाई देते हैं। पास में भाई शत्रुघ्न सो रहे हैं। भरत छोटे भाई को (अनुज )को अपना दर्द नहीं बता सकते हैं। उन्हें लगा अपना दुःख किस्से बांटू। और माताएं कहाँ हैं। वे सिर  झुकाए रो रहीं हैं।

सपने सात प्रकार के होते हैं। रामायण  में , सबको सपने आते हैं। कौशल्या को भी सपना आया था। त्रिजटा सपना देखती है कोई वानर आएगा वह लंका को जला देगा।

सपने वानर लंका जारी।

सीता की रक्षा के लिए कोई वानर आएगा। वह हम सबको मार के जाएगा। ये सपना बहुत जल्दी सच होयेगा। अभी आये नहीं थे हनुमान। भोर के सपने प्राय :साकार होते हैं।

सरयू भी जैसे नीर बहा रही है आँखों से।जैसे ही सुबह होगी मैं शिव अभिषेक करूंगा। दुग्धाभिषेक करूंगा भरत सोच रहे थे मन में।

 विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर भोजन करवाऊंगा तब कुछ खुद ग्रहण करूंगा। रिपुदमन ने पूछा भैया क्या बात है आप बहुत उदास हैं। भरत इतना ही कहते हैं हम अकेले क्यों पड़े हैं यहां ननिहाल में ,हमें अपने माता पिता के पास चलना चाहिए। इतने में ही गुरु के हरकारे पहुँच गए -बड़ा सपाट पत्र है। लिखा है -भरत शीघ्र चले आओ।

गुरूजी ने क्यों लिखा यह पत्र ?पत्र तो पिता लिखते। पिता कहाँ हैं। भरत आशंकित हैं। इसमें सीमान्त प्रदेश के भी कोई समाचार नहीं है। इस पत्र में न कुशलता है न आशीर्वाद। भरत समझ गए कुछ ऐसा हो गया है जो बहुत अघटित हो।
रिपुदमन के मन में विचार आया -कहीं राक्षसों ने अयोध्या पे हमला तो नहीं कर दिया। मेरे पिता को तो बंधक नहीं बना लिया।
कुछ ऐसे लोग भी थे अयोध्या में जो कह रहे थे ये सब भरत का किया हुआ है। कुछ लोगों ने कहा हम ये बात नहीं सुन सकते। ये बात ही झूठी है। कुछ लोगों ने कहा हो सकता है चन्द्रमा अग्नि बरसाए लेकिन भरत स्वप्न में भी राम के विरुद्ध नहीं हो सकते। भरत तो खेल में भी बालपन के खेलों में भी,बालपन में भी राम के खिलाफ खड़े भी नहीं हो सकते।  अलग दल नहीं बना सकते। भरत गुरु के कहने पर राम के आनंद के लिए दल बना लेते हैंखेलबे को।सिर्फ राम के आनंद के लिए।  रिपु दमन और लक्षमण ऐसा नहीं करते थे। राम जानकार हारने का अभ्यास करते।

एक दिन भरत ने जब पूछा भैया ये क्या है आप हर बार हार जाते हो। बोले राम में तेरे आनंद के लिए हार जाता हूँ। परिवार में हारना ही आनंद बनता है।खड़े होना चाहिए दाव में लगाना चाहिए खुद को ,कुछ हारने के लिए दूसरों के आनंद के लिए।अपशकुन हुए -

खर श्यार बोले प्रतिकूल।

कैकई ने ऐसी योजना बनाई कि किसी भी ढंग से भरत गुरु से न मिल पाए। सीधा मेरे पास आये। भरत अयोध्या में प्रवेश करने के बाद किसी से नहीं पूछते कि घर में क्या चल रहा है किसी चाकर दास से वह कुछ नहीं पूछते। गुप्तचर इस तरह से भरत को लेकर गए कि वह सीधे कैकई के पास पहुंचे।

जिसके पति की लाश घर में पड़ी हो वह आरती का थाल कैसे सजा सकती है। सज कैसे सकती है। भरत भारी मौन में है भरा हुआ है भरत का मन ,वह कहता है इस वक्त माँ आरती नहीं टीका नहीं मुझे समाचार दो यहां के समाचार बताओ। कैकई बोलीं हमारे यहां (ननिहाल में) तो सब कुशल हैं। भरत कहते हैं मेरे सवाल का ज़वाब दो पहले। माँ बोली मैंने तेरी बात बना दी। ये राजमुकुट तेरा है ये धरा तेरी है। तू राजा है। भरत पूछते हैं भइया कहाँ हैं राम कहाँ हैं। वह भटक रहा होगा जंगल में। मैंने भगा दिया। और तेरे पिता -देवताओं ने काम बिगाड़ दिया हमारा -तेरे पिता की मृत्यु हो गई।

तेरे रोम रोम को धरती से अग्नि निकल के भस्म क्यों नहीं कर गई। तेरी जिभ्या कट क्यों नहीं गई। मैं तुझे मातृत्व पद से वंचित करता हूँ -बोले भरत माँ कैकई से।  तुझे जीवन भर माँ नहीं कहूँगा। तूने अपने पति  के प्राण छीने। रिपुदमन का हाथ खींचते हैं भरत भागे कौशल्या के महलों की ओर। कौशल्या ने भरत को देखा। कौशल्या को ऐसे लगा जैसे राम वन से लौट आये। तू अपनी माँ के प्रति द्वेष मत रखना। कैकई यंत्र बन गई है। कोई यंत्र बना रहा है उसे। कैंची तो नहीं जानती क्या काट रही है। वह तो खंड खंड काटना जानती है। अलग अलग करना जानती है। अपनी माँ के प्रति द्वेष मत रखना। किसी के प्रति द्वेष रखने से अपनी दिव्यता नष्ट होती है पुण्य क्षीण होते हैं।

किसी की निंदा करने से अपना चित्त म्लान होता है।अपनी दिव्यता खोती  है। माँ उसने मुझे  कलंकित किया है-बोले भरत। गिर पड़े कौशल्या के पांवों में। मुझे पातकी बनाया है उसने। जिसने अपने पति के प्राण छीने। वह कह रही है देवताओं ने हमारा काम बीच में ही बिगाड़ दिया। वह उन्हें पति भी मानने को तैयार नहीं है। कौशल्या ने माथे पे चुंबन लेते हुए कहा तेरी माँ क्या है ,कुछ दिन के बाद  पता चलेगा।

कछु काज विधि बीच बिगाड़ो।

पिता के शरीर के पास जाकर बिलखने लगे भरत। गुरु वशिष्ठ की आज्ञा  से उनका दाह संस्कार किया गया तिलांजलि श्रद्धांजलि   दी गई। सभा बुलाई गई।



वशिष्ठ ने सभा बुलाई। पहली बार उनकी आँखों में अश्रु दिखाई दिए।

सुनहु भरत भावी प्रबल , बिलख कहेउ  मुनिहु   नाथ

हानि लाभ जीवन मरण ,यश अपयश विधि हाथ।

जो नियंता की नियति है वह इतनी प्रबल है उसे हम पढ़ नहीं पाते। जान नहीं पाते। क्या नियत हुआ है हमारे लिए ,हमारा भवितव्य क्या है हम जान नहीं पाते।

अब यह समझ नहीं आ रहा गुरुदेव को करें क्या ?पहली बार उनकी आँखों में अश्रु दिखे। उन्होंने साहस करके कहा -शास्त्र ऐसा कहते हैं -

सद ग्रन्थ ऐसा कहते हैं पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए। बोले भरत मेरे पिता की यह आज्ञा नहीं है उनसे तो छल करके सत्ता छीनी गई। भरत ने कुछ ऐसी बातें कहीं गुरु निरुत्तर हो गए। गुरु देव मुझे धर्म न सिखाओ मैं मोक्ष नहीं चाहता ,मुझे तो राम के चरण चाहिए।जिसका यह राजमुकुट है उसे ही सौंपा जाना चाहिए। मुझे धर्म ,अर्थ ,काम ,मोक्ष कुछ भी नहीं चाहिए। मैं हमेशा उनका अनुचर बनके आऊँ ,यही चाहता हूँ।

इस समय जो मेरा दैन्य है अभाव है उसे आप मिटाइये। और वह है राम दरश। मुझे राम से मिला दीजिये। जब तक राम नहीं मिल जाएंगे मैं अन्न ग्रहण नहीं करूंगा। शरीर निर्वाह के लिए फल फूल जल ही लूंगा। सब तैयार हो गए वन को जाने को। कौशल्या भी निकल आईं। कहा मैं भी चलूंगी  ,सुमित्रा भी।  कौशल्या ने कहा हमसे कुछ भूल हो रही हैं। तीन पालकियां सजाई जाती हैं तीसरी कहाँ हैं उन्होंने सुमित्रा को बुलाकर कहा पहली बार आपसे अपराध हुआ है। हमारी तीन पालकियां चलतीं हैं। सुमित्रा घबराईं । उन्होंने कहा पालकी  सुमंत ने लगवाईं  हैं।तीसरी पालकी मैं अभी लगवाती हूँ। सारी सेनाएं तैयार हो गईं।
सुमंत ने और दासियों सेवकों ने बताया कैकई के तो महल के कपाट बंद हैं। जैसे ही भरत निकले भवन से देवता भी कैकई के भवन से निकल गए ,घबराए से ।

 कैकई को पता चला मुझसे तो बहुत बड़ा अपराध हो गया। मैंने अपने पति की जान ले ली। कपाट नहीं खुलेंगे। जब राम आएंगे तभी कपाट खुलेंगे। दीया नहीं जलेगा। मैं प्रायश्चित करूंगी।

कैकई के कपाट कौशल्या ने खुलवाए। कौशल्या ने कहा मैं बड़ी हूँ।हमेशा तेरी नहीं चलेगी- अर्गली  खोल।  कैकई पैरों में गिर गई। कौशल्या ने उसे उठाते हुए कहा -तेरा कोई अपराध नहीं है यह सब पहले से ही तय था। चलो चलो बात खत्म हो गई। मुझे सब पता था। लेकिन भरत कैकई से नहीं बोले। कौशल्या ने कहा -भरत प्रणाम करो माँ कैकई को , भरत हाथ पकड़ो कैकई का बिठाओ पालकी में। यदि तुम इनका आदर नहीं करोगे तो राम तुम्हें कभी नहीं मिल सकता। राम तुम्हें तभी मिलेंगे जब तुम कैकई की बात रखोगे। मान रखोगे कैकई का। किसी को पश्चाताप की अग्नि में जलते छोड़ देना इससे बड़ी कोई  हिंसा नहीं हो सकती।

लक्षमण का मन डोला था। भरत चतुरंगणी सेना लेकर आ रहा है। बाण तुरीण  पर रखा था तरकश का सबसे भयानक तीर। राम ने कहा तू भरत का मन नहीं पढ़ सका -भरत सब कुछ सौंपने आ रहा है तेरे मन में इतना भी भरोसा नहीं रहा भैया के लिए । लक्षमण ने कहा मैं हमेशा से स्वभाव से ही कटु हूँ ,बहुत जहर लिए बैठा हूँ।  आवेश में रहता हूँ। हज़ार हज़ार फन वाला शेषनाग ही तो हूँ। आपके लिए मैं सदैव सब कुछ करने को तत्पर रहता हूँ।आपके लिए मैं मर जाऊंगा। मैं आपकी चिंता में ही तो रहता हूँ। मैं अति कर बैठा। राम के समझाने पर लक्ष्मण शांत हो गए।


मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

लबारी लालू और शूरसेन के वंशज अरुण शौरी में कुछ तो फर्क होना चाहिए

श्रद्धावान लभते ज्ञानम

लबारी लालू और शूरसेन के वंशज अरुण शौरी में कुछ तो फर्क होना चाहिए। आप मेधा और बुद्धि के धनी  रहे हैं। इस वक्त जबकि पाकिस्तान और चीन दोनों भारत को तिरछी  नज़र से देख रहे हैं घात लगाए बैठे हैं -देश को आपके बड़प्पन की आपके समर्थन की ज़रूरत  थी। आप सरकार के पक्ष में पूरी सामर्थ्य के साथ खड़े होते,आपकी शान रहती।  थोड़ा सा धीरज रखते।

धीरज धर्म मित्र अरु नारि ,

आपदकाल परखिये चारि।

अब लोग तो ये ही कहेंगे -आप बिना सत्ता सुख के रह नहीं पाये। आप अपनी सत्तालोलुपता को शब्दों का जामा पहना कर ये मत कहिये -पीएमओ में अनुशासन नहीं है। प्रधान मंत्री पद को पूडल में तब्दील कर देने वाले एक शख्स का ज़िक्र करते हुए आपका मुंह ज़ायका नहीं बिगड़ा। आपको उस कांग्रेस से अलग दिखना चाहिए जिसने अपने राजनीतिक लाभ के लिए एक मंदमति को खुला छोड़ा हुआ है। 

वाल्मीकि ने कहा आप चित्रकूट में जाकर रहिये। चौदह साल के वनवास में राम बारह साल चित्रकूट के आश्रम में रहे। सबसे पहले घर में तुलसी की स्थापना करें घर के बीचों बीच में। तुलसी के बिरवे के दो मीटर के दायरे में ,रेडियस में, प्राण रहते हैं। काशी के विद्या निवास मिश्र ने ब्राज़ील के अर्थ सम्मिट में पर्चा पढ़ा था इसी आशय का। पीपल ,कदम्ब ,मौली प्राण वायु तो देते हैं प्राण नहीं। तुलसी प्रसाद का निर्माण करती है। तुलसी जो रोज़ छू लेते हैं उनमें असंतुलन पैदा नहीं होता है।

ब्रह्मनिष्ठ लोकपावना

ये वो लोग हैं ऋषि मुनि हैं  जिन्हें एक हज़ार बार गंगा पैदा करने की  सामर्थ्य प्राप्त है। इनके भरोसे ही मैं तुझे धरती पर भेज रहा हूँ। ये उद्बोधन था  शिव का गंगा को। गंगा तो पृथ्वी पर आना ही नहीं चाहती थी उसने भगीरथ से कहा भले तेरा तप बहुत बड़ा है पर ये मृत्युलोक के लोग मुझे गंदा करके छोड़ जाएंगे। शिव ने गंगा से कहा तू मैली हो ही नहीं सकती। जो  शिव के माथे  पर बैठ कर  भगवान विष्णु के चरणों का स्पर्श करके  निकली है जिसने ब्रह्मा जी के कमण्डलु और हाथ का स्पर्श किया है वह गंगा कैसे मैली   हो सकती है। शिव ने कहा देख मृत्यु लोक में नीचे झांककर देख यहां कैसे कैसे ब्रह्मनिष्ठ लोकपावना ऋषि मुनि भी हैं। भारद्वाज जब स्नान करने निकलते थे  गंगा सात कदम चलकर आती थी।

साधु  सन्यासियों के भरोसे ही गंगा धरती पर उतर  कर आईं  थीं। पांच गकार ऐसे हैं जो मनुष्य के लिए सेवन के योग्य हैं जिनके सेवन करने से सब कुछ मिल जाता है। ऋषि इन पांच (गुरु ,गौ गंगा ,गायत्री ,गीता ) का सेवन करते हैं। इन पांच गकारों के सेवन से मोद , मुक्ति ,और माधुर्य की तो प्राप्ति होती ही है बाकी सब कुछ भी मिल जाता है। हमारी संस्कृति केवल तीन शब्दों में मिल जाएगी। एक है तर्पण दूसरा है अर्पण और तीसरा है समर्पण।

तर्पयामि तर्पयामि। ये तरपन कौन करता है।

पितरों का तर्पण किया जाता है। जो गंगा किनारे होता  है या अन्य  तीर्थों पर भी किया जाता  है।भल्गु तीर्थ ,गया ,ब्रह्म कपाली आदि तीर्थों में  होगी तर्पण क्रिया। गंगा के जल में वह तरंगें  हैं ,   वह सामर्थ्य है जो हमें  पितरों से कनेक्ट कर देतीं  है। इस आशय के अनेक रिसर्चपेपर (शोधपत्र )आये हैं वहां (पश्चिम )के विश्विद्यालयों में प्रयोगों के बाद।  ये तर्पण की परम्परा बहुत वैज्ञानिक है ,इस सार्वभौम सत्य को स्थापित करती है तर्पण विधि। भारत के पास यह सबल वैज्ञानिक विधि है श्राद्ध विधि है पितरों से संपर्क करवाने की। ऐसा अब पश्चिम भी मानने लगा है।

अर्पण क्या है ?कुछ खाना पीना अर्पित करके ही हम कुछ खाते पीते हैं। कुछ अर्पण करके ही हम खाना पीना लेते हैं। तीसरा क्या है समर्पण। ये तीनों शब्द पश्चिम की संस्कृति में नहीं हैं। ये सारे उपदेश भरद्वाज ऋषि के आश्रम में मिले।विश्वामित्र से मिले। समर्पण (शब्द )एक बड़ी साधना है। उपदेशात्मक जीवन होना चाहिए हमारा। उपदेश के प्रति अरुचि नहीं होनी चाहिए। संत चलते फिरते ज्ञान मंदिर होते हैं। सत्संग औषधि है। संत वैद्य हैं। कुछ लोग कहतें हैं हमने सब कुछ सीख लिया। इससे बड़ी मूढ़ता कुछ और हो नहीं सकती। यहीं से हमारा पतन शुरू हो जाता है। गुरुओं के संग से जीवन जीने का सलीका मिलता है। विश्वामित्र के आश्रम में ये सारे के सारे उपदेश मिले। जिज्ञासु बने रहना। उपदेश लेते रहना। कैसे सेवन किया जाए संत का। संत औषधि हैं। कैसे ली जाए ये औषधि ?कुछ आसव हैं कुछ भस्म हैं कैसे ली जाएं ये ?गोली कैसे ली जाए कोई भी। यह ऋषि बतलायेगा। 

जब साइनायड जैसे पदार्थ में इतनी ताकत है कि इसका अल्पांश भी जिभ्या पे जाए तो प्राणों का संतुलन लड़खड़ा जाता है। जिभ्या बोल नहीं पाती ,अकड़ जाती है ,तब संत से प्राप्त ज्ञान में क्या ताकत नहीं होगी।एक छोटी सी गोली आपको नींद में ले आती है। जब विषैली वस्तु ऐसी हैं तब ज्ञान में भी कोई ताकत तो ज़रूर होगी।

 राम जंगल में निकल पड़े। एक मुद्दा उनके सामने ये है कहाँ रहें कैसे रहें और किस दिशा में रहें ?ये  घर कैसा बनाये।
ये जो चार दिशाएं हैं और इनके अंदर जो चार दिशाएं हैं वे हमारे औरा हमारे तेज और हमारे भीतर के विचारों का हमारी ऊर्जा का संतुलन बनाके रखतीं है।उत्तर और पूरब के बीच की  दिशा जल की दिशा है।  पूरब और पश्चिम के बीच की दिशा जिसे अग्नि कौण  कहते हैं -वो अग्नि का स्थान है जल और अग्नि इन दोनों में संतुलन रहना चाहिए।

 जो बीच का स्थान है वह आकाश का स्थान है वहां से आकाश निहारता रहे ,वहां पवन आती रहे ,आकाश ,निहारिकाएं ,नक्षत्र ,प्रकाश झांकता रहे। जो नार्थ वेस्ट है वह अतिथि का स्थान है। जो  साउथ ईस्ट है वो अग्नि कौण  है वहां पर अग्नि रहनी चाहिए। जो साउथ वेस्ट  है वह थोड़ा ऊंचा सा हो वहां आप स्वयं रहें।

जिस घर में तुलसी है हवन होता रहता है रामायण का,पुराणों ,निगम आगम का  पाठ होता रहता है वहां का वास्तु अपने आप ठीक हो जाएगा। जीवन के बड़े निर्णय बड़ों से माँ बाप से गुरु से पूंछ कर लेना। शास्त्र सम्मत ,गुरु द्वारा समर्थित मार्ग पर चलें  वह आपका जीपीएस बनें। उस मार्ग से चलें जो गुरु द्वारा उपदेशित है जहां से महापुरुष गए हैं।शास्त्र सम्मत मार्ग हो। भटका वह है जिसके पास आदर्श नहीं है।  जीवन में आदर्श की स्थापना कीजिये। आदर्श के अभाव में आप डी -ट्रेक्ट हो जाएंगे। ऑटो पायलट होता है आजकल। कहाँ उतरना है वह बस सॉफ्ट वेयर डालता है। सही स्थान पर वायुयान उतरता है।

राम ने सीता से पूछा हम कहाँ रहें वे त्रिकाल दर्शी ऋषि तय करेंगे। गुरुदेव से पूछेंगे। राम जीवन भर गुरु का आदेश मानते हैं उनसे पूछे बिना कुछ नहीं करते। राम वाल्मीकि के आश्रम में पहुँचते  हैं। वाल्मीकि को देखकर साष्टांग दंडवत हो गए राम। वाल्मीकि ने उन्हें उठाया। वे अकेले संत हैं जो जानते हैं राम किस पल छिन आएंगे। वाल्मीकि कहतें हैं आप जिस शरीर में हैं इस कारण मैं आपको आशीर्वाद दे   रहा हूँ। मैं भली भाँती जानता हूँ, आप कौन हैं। मुझसे ये अनभिज्ञता नहीं कि आप कौन हैं। विधि ,विष्णु ,शंकर को  आप कई बार नचा देते हैं ये मैं जानता हूँ। न न मैं इतना महान नहीं हूँ बोले राम।
राम कहते हैं मैं दशरथ पुत्र हूँ ये मेरा छोटा भाई लक्षमण है। मैं ये जानने आया हूँ मुझे कहाँ रहना चाहिए।
जिनके श्रवण समुद्र समाना ,
विधि ,हरि, शम्भु नचावन  हारे।
उमा दारु जो सुख की नाहिं  ,
सदैव नचावत  राम गोसाईं।
जिनके कान और साइज़ समुद्र जैसे हैं कथा सुन सुनकेभी  जो अघाते नहीं थकते नहीं उनके हृदय में रहना-बोले वाल्मीकि राम से।

 साधना की  पहली सीढ़ी श्रवण है। जब आप अच्छा सुन रहे होते हैं अच्छा स्टोर कर लेते हैं ,तब बेकार आपके अंदर  से निकल जाता है। वह चीज़ जो दुःख देने वाली है जिससे अवसाद पैदा होता है वह निकल जाएगी। परीक्षित ने सुना शुकदेव को ,मृत्यु का उनका भय चला गया। जानकारी एक प्रकार की सम्पदा है।गरुण ने कथा सुनी काग भुसुंडी  जी से उनका भरम चला गया , पार्वती ने सुनी  कथा शिव से सुनकर उन्हें अलग अनुभव हुआ। कृष्ण ने अर्जुन को सुना उनका मोह नष्ट हो गया। सुनने की एक विधि है अगर आप ठीक ढंग से सुने ,सुनने के आप अधिकारी हैं , सुनना आपको आ गया है तो आपको निरंतर लाभ मिलेगा ।  कथा भी कॉन्सलिंग है।

गुरु कौन है -जो दुर्बोध को सुबोध कर दे ,वही गुरु है। ज्ञान गुरु है। उपदेश गुरु है।जो कठिन को सरल बना दे ,दूर को पास कर दे ,अलभ्य को लभ्य कर दे वही गुरु है । शब्द गुरु है।गणेश जी के कान देखें हैं कितने बड़े हैं पहले सुनो अधिक ,देखो कम ,बोलो सीमित ,सोचो ,फिर आपको देखना आ जाएगा। संतुलन कर लो आपको क्या बोलना है तब बोलो।
जो उद्यम शील हैं विवेकी हैं उनके पास रहिये बोले वाल्मीकि राम से। जो निश्छल हैं। छल नहीं करते सरल हैं उनके पास रहिये। भक्तों के उद्यमियों के हृदय में आप रहिये राम।

वाल्मीकि ने कहा  आप चित्रकूट में जाकर रहिये। चौदह साल के वनवास में राम बारह साल चित्रकूट के आश्रम में रहे। सबसे पहले घर में तुलसी की स्थापना करें घर के बीचों बीच में। तुलसी के बिरवे के  दो मीटर के दायरे में ,रेडियस में, प्राण रहते हैं। काशी के विद्या निवास मिश्र ने ब्राज़ील के अर्थ सम्मिट में पर्चा पढ़ा था इसी आशय का। पीपल ,कदम्ब ,मौली प्राण वायु तो देते हैं प्राण नहीं। तुलसी प्रसाद का निर्माण करती है। तुलसी जो रोज़ छू लेते हैं उनमें असंतुलन पैदा नहीं होता है।

तुलसी का बिरवा रोपने के बाद फिर एक छोटी सी यज्ञ वेदिका  बनाई राम ने। कुछ वृक्ष लक्षमण ने रोपे। और इस तरह से भगवान मुनि मंडली के साथ जंगल में रहे। जंगल के लोग उनके लिए फल लेकर आते हैं उन्हें प्रणाम करते हैं। उधर अयोध्या में क्या हो रहा है। ये आगे के सत्संग में पढ़िए।
जैश्रीकृष्णा !




सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

कौशल्या को शाम से ही अपशकुन होने लगे थे वह पूजा घर में चली गईं कैकई को प्रबंध सौंप कर। मौन धारण कर लिया अनिष्ट को टालने के लिए। मंथरा ने अपने जीवन का सबसे बड़ा झूठ बोला -मैं अपने कानों से सुनकर आईं हूँ भरत और तुम्हारे खिलाफ एक बहुत बड़ा षड्यंत्र राजमहल में चल रहा है जिसके तहत राम को राजा बना दिया जाएगा ,भरत और तुम्हें कारागार में डाल दिया जाएगा। कौशल्या और दशरथ को यह मंत्रणा करते मैंने अपने कानों से खुद सुना है और तुम इस सबसे बेखबर राज्याभिषेक की तैयारी में जुटी हो। अपना अनहित जीवन का सबसे बड़ा अनिष्ट तुम्हें दिखता नहीं। आखिर तुमसे ही क्यों यह समाचार छिपाया गया। एक झूठ को मंथरा ने बार बार दोहराया और कैकई को वह सच लगने लगा। अब तमाम देवता कैकई के दिमाग पे छा गए थे। वही सब कुछ करवा रहे थे। झूठ का सच।

सत्संग के फूल :

नदिया का नीर कब दुर्गन्ध को ,मैलेपन को प्राप्त होता है तब जब वह -किनारे पे ठहरा हुआ रह जाए -इसीलिए हमारे ग्रंथों में कहा गया -रमता जोगी ,बहता पानी ,यानी साधू रमता (एक जगह ठहरा )भला और पानी बहता भला। मनुष्य के लिए हमारे शास्त्रों में कहा गया -कहीं एक जगह ठहर मत जाना ,चलते रहना ,चलते रहना ,चरे वेती ,चरे वेती।

बहते रहने का नाम ही नदिया है जो सागर बन सकती है। अपने लक्ष्य की ओर ही दौड़ रहीं नदी। वैसे ही हे मानव तू ऊर्जावान रहना ,बहते रहना ,ठहरना मतजीवन में। लक्ष्य के साथ बहते रहना ही सिद्धि है।  किसी एक जगह रुक मत जाना। बादशाह बनके जियो एम्पायर बनके जियो लेकिन आपका लक्ष्य भगवद प्राप्ति हो । हमारे शास्त्रों में कहीं भी धन का निषेध नहीं किया गया है। खूब धन कमाओ लेकिन धर्म  के सहारे।

माला हाथ में होए खूब धन कमाना लेकिन धर्म  साथ में रहे तब माला (धर्म )और माल(अर्थ ) मिलके मालामाल हो जाओगे। जीवन जीने के लिए जो तरंग चाहिए जो उत्साह चाहिए वह देता   है सत्संग ,कथा ।मास कॉन्सिलिंग है सत्संग। धर्म के साथ अर्जित करो धन। फिर अपनी सारी कामनाएं  (काम )पूरी  कर लो ,मुक्त हो जाओ फिर एषणाओं से यही जीवन का लक्ष्य है। कथा एक मार्ग बताती है उत्प्रेरक है जीपीएस (ग्लोबल पोज़िशनिंग सेटेलाइट )है।लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सिद्धि के लिए कथा श्रवण ज़रूरी है।

जीवन में कहीं ठहराव न आने पाये उसमें निरंतरता रहे वह कहीं अवरुद्ध न हो जाए गतिमान रहना। इसीलिए साधू के लिए कहागया -रमता जोगी और पानी  के लिए कहा गया बहता पानी। नित्य नए विचारों का चिंतन कीजिए अन्वेषण कीजिए जीवन में रोज़ रोज़। हर दिन एक नया संग्राम नई परीक्षा है। आपके पास आध्यात्मिक पथ का बैकप हो बस।निराशा फिर आपको छूएगी  नहीं। जो इसकी प्राप्ति में अधिक सामर्थ्य देती है उसका नाम कथा है।

सिद्धि प्राप्त का अर्थ यही है जो अपनी सारी समस्याओं का निराकरण कर लेता है ,संशय की जड़ों को खोद डालता है।वह सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

शाश्त्रों में दो बारातों की विशेष चर्चा है एक शिव बरात दूसरी रामजी की बरात। दोनों में एक बात कॉमन है देवता बाराती हैं। रामजी की बारात एक महीने तक जनकपुर में रूकती है और कोई भी व्यंजन दोबार नहीं परोसा गया। हर दिन हर प्रहर नए व्यंजन बारातियों को परोसे गए। क्योंकि यहां स्वयं लक्ष्मीजी जनवासे में मौजूद हैं।

राम सीता का विवाह हो जाता है। लक्षमण जी का जानकी की छोटी बहन उर्मिला से   जनक जी के छोटे भाई कुशध्वज की  कन्याओं मांडवी ,श्रुतकीर्ति के साथ विवाह हो जाता है भरत और शत्रुघ्न का।

अयोध्या में बरात लौटने के बाद हर्ष की लहर छा जाती है। फिर कुछ दिन बीतते हैं। तब एक दिन -

प्रसंग :जब राजा दशरथ एक  आईना देख रहे थे और अपने कान के गिर्द उन्होंने एक सफ़ेद बाल देखा ,जब उन्होंने महसूस किया कि अब यह मुकुट उनके माथे पे ठहरता नहीं है तब वह मुनि वशिष्ठ के पास गए और पांचों मंत्रियों सभासदों के सामने अपनी इच्छा कह दी। मैं जितना पुण्य इस जीवन में राजा के रूप में कमा सकता था ,कमा चुका। अब ओर पुण्य कमाने के लिए मुझे  राजपाट किसी और समर्थ व्यक्ति को सौंप देना चाहिए। मेरे मन में श्री राम का नाम आता है। आप लोगों की इस बारे में क्या राय है। सबने मुक्त कंठ से सहर्ष इस प्रस्ताव का स्वागत किया। देखते ही देखते अयोध्या उल्लास और आनंदातिरेक में डूबने लगी।
राम के राज्य अभिषेक की तैयारियां होने लगीं। राजा दशरथ रथ पे सवार होकर नगर की और ढेर सारे तोहफे लेकर निकल गए। आज निचले तबके के लोग उनसे कुछ लेते नहीं हैं उन्हें कुछ देते हैं अपने आनंद को साझा करने के लिए यह कहते हुए कि हम लोग तो आपसे सदैव ही प्राप्त करते रहें हैं। आज हमें भी अपनी सामर्थ्य के अनुरूप कुछ देने देवें।

दूसरी और स्वर्ग में आपात बैठक चल रही थी। सब देव बड़े चिंतित थे। राम का राज्याभिषेक हर हाल में रोका जाना चाहिए। राम राजा बन गए तो राक्षसों का वध कौन करेगा जो वनप्रांतरों में चलने वाले हवन यज्ञ आदि में निरंतर विघ्न डाल रहें है। सरस्वती ने आगे बढ़के अपनी सेवाएं अर्पित कीं। साथ ही यह आश्वासन भी माँगा कि देवताओं का बैकप उन्हें मिले किसी भी आपद स्थिति से निपटने के लिए।

देवता राजी हो गए। छल कपट से सरस्वती ने कैकई के महल में प्रवेश लिया और कैकई की दासी मंथरा के मस्तिष्क में प्रवेश ले लिया। उसने देखते ही देखते कैकई के महल की साज सज्जा को विच्छिन्न कर दिया। वंदन वारें तोड़ दीं। कैकई के दिमाग को संदूषित कर दिया। ईर्ष्या से पूर दिया।

कौशल्या को शाम से ही अपशकुन होने लगे थे वह पूजा घर में चली गईं कैकई को प्रबंध सौंप कर। मौन धारण कर लिया अनिष्ट को टालने के लिए। मंथरा ने अपने जीवन का सबसे बड़ा झूठ बोला -मैं अपने कानों से सुनकर आईं हूँ भरत और तुम्हारे खिलाफ एक बहुत बड़ा षड्यंत्र राजमहल में चल रहा है जिसके तहत राम को राजा बना दिया जाएगा ,भरत और तुम्हें कारागार में डाल दिया जाएगा। कौशल्या और दशरथ को यह मंत्रणा करते मैंने अपने कानों से खुद सुना है और तुम इस सबसे बेखबर राज्याभिषेक की तैयारी में जुटी हो। अपना अनहित जीवन का सबसे बड़ा अनिष्ट तुम्हें दिखता नहीं। आखिर तुमसे ही  क्यों यह समाचार छिपाया गया।

एक झूठ को मंथरा ने बार बार दोहराया और कैकई को वह सच लगने लगा। अब तमाम देवता कैकई के दिमाग पे छा गए थे। वही सब कुछ करवा रहे थे। झूठ का सच।

मंथरा ने उसे याद दिलाया तुम अब भी जेल जाने से बच सकती हो तुम्हारा पुत्र भरत राजा बन सकता है और तुम राजरानी। कोप भवन में जाओ नाटक करो। अपने दोनों वर मांग लो जब तुमने दशरथ की जान रथ का पहिया निकल जाने पर अपनी ऊँगली डालके बचा ली थी तब जब दशरथ देवों  की तरफ से संग्राम कर रहे थे और अचनाक रथ का पहिया निकल गया था।

कैकई ने अपने पहले वर में भरत के लिए राज्य मांग लिया। राजा को झटका तो लगा लेकिन उन्होंने अपने को यह सांत्वना देकर संभाल लिया -भरत और राम में अंतर  ही  क्या है। लेकिन जैसे वह सब जान गए थे बोले आखिर तू चाहती क्या है तेरी असली मांग है क्या। दशरथ अपने योगबल से समझ गए थे ये ज़रूर किसी की चाल है ये कैकई के स्वर नहीं हो सकते। फिर भी वह वचन बद्ध  थे रघुकुल और हरिश्चंद्र की परम्परा उन्हें याद थी। वे अपने आपको किसी अनहोनी के लिए तैयार करने लगे।

मांगऊ दूसर वर  कर जोरि ,
पुरबौ नाथ मनोरथ मोरि ।

चौदह बरस राम वनवासी ,
कबहिं लगन मुद मंगलकारी।
प्रात :होते ही यह समाचार पुरवासियों को दीजिये। दशरथ अपना आपा अपने होशोहवास खो बैठे -जब देर तक कैकई के भवन के द्वार नहीं खुले तो सुमन्त्र पहुंचे उन्होंने देखा राजा बे -सुध पड़े राम राम … कहते हुए भारी वेदना से कराह रहे हैं। उन्होंने जाकर दशरथ की व्यथा दशा राम को जा बताई। पिता के पास आकर उन्होंने कहा -इसमें मेरा ही हित  सोचा है माता कैकई ने। राम का रामत्व वन में ही  तो फलित होगा। कौशल्या को युक्ति पूर्वक जाकर उन्होंने बतलाया -
पिता दीन  मोहे कानन  राजू ,
जहां सब भाँतिन  मोर बड़ काजू।

एक पल लगा राम को सब कुछ त्याग कर वन की ओर चलने में।

जीयु बिन देह ,नदी बिन बारि ,

तैसे ही नाथ ,पुरुष बिन नारि।
यह कहकर सीता भी उनके साथ जाने को उनसे पहले तत्पर हो गईं।
छल अनंत हैं ,मिथ्या मायावी प्रपंच हैं।
परहित सरिस धरम नहीं भाई।
इस धरती पर उनकी चर्चा है जिन्होनें त्याग किया है वही आदरणीय हैं हमारे भीतर स्थापित हैं आदरणीय हैं। स्वीकृत हैं स्वाभाविक तौर पर। जो वन गए जिन्होनें त्याग किया है वह बन गए हैं । निर्माण वहां है जहां त्याग है।  उत्तम जीवन जीकर इस धरती पर प्रणाम छोड़े जा सकते हैं। जब व्यक्ति दूसरों के लिए जिए तभी जीवन सार्थक है सम्मानीय है।

राम वन क्यों जा रहे हैं -तुम्हारा भाग्य  उदित हो रहा है इसलिए राम वन जा रहें हैं। वो कारण मंथरा नहीं है कैकई नहीं है। देवताओं की हित सिद्धि ,राक्षाओं का उद्धार नहीं है। धरती का भार काम करने के लिए राम वन जा रहे हैं। ये बोझा शेष नाग (लक्ष्मण के सिर )पर ही तो रखा है। उसी लक्ष्मण के माथे का भार उतारने राम वन जा रहे हैं। अगर मैं यह भी मानूं कि तू मेरा बेटा है ,तो भी हे लक्षमण मेरा मातृत्व तभी धन्य होगा जब तू राम के साथ जाएगा। पुत्र तो वही है जो माँ को धन्यता  दे । राम की सेवा में जिसका बेटा लगेगा वही माँ धन्य होगी ।
तुमरे भाग राम वन जाहिं ,दूसर हेतु तात कछु नाहिं-ये वचन बोलतीं हैं माता सुमित्रा लक्षमण से।
जब लक्षमण राम तक पहुँचने के लिए निकल रहे थे तो आँगन में उन्हें एक परछाईं दिखाई दी।  वह उर्मिला की थी। वह एक स्तम्भ का सहारा लिए खड़ी थीं। आँगन में उन्हीं की परछाईं पड़ रही थी। वह लक्षमण से मिलने नहीं आईं थीं लेकिन सूर्य देव की उन पर कृपा हुई थी जो उनकी परछाईं लक्षमण तक पहुंची। वह लक्षमण से मिलने इसलिए नहीं आईं कि लक्षमण तो खुद राम के दास हैं। और मैं किंकरी हूँ उस दास की भी दास हूँ । एक दास के कोई अधिकार नहीं होते। लक्षमण जब उर्मिला के पास पहुंचे तो वह बोलीं नाथ में आपको वचन देती हूँ मैं यहां अयोध्या में ऐसे रहूंगी कि आपको मेरा ध्यान ही नहीं आएगा। मैं आपको विस्मरण का वरदान देती हूँ। मैं व्रत भी रखूँगी तो आपका स्मरण न करूंगी ताकि आपको मेरा ध्यान न आवे। मैं जानती हूँ मेघनाद का वध वही कर सकता है ,जो चौदह बरस वनवास में रहे। और इन तमाम बरसों में नित्य चौकन्ना रहे। सोये नहीं जागता रहे। व्रत में रहे। अन्न ग्रहण न करे। शील में रहे। और वह बल और शील के  स्वामी आप हैं।मेरा पत्नीत्व आज सार्थक हुआ आप राम की सेवा में जा रहे हैं। लीला के अंग बन रहे हैं।

जब सुमंत राम को वन में छोड़कर चल देते हैं वह एक बार अयोध्या को मुड़कर देखते हैं और एक मुठ्ठी मिट्टी अयोध्या की उठा लेते हैं ,ताकि ये उन्हें अभिमान न हो मैंने सब कुछ  त्याग दिया। और फिर मेरे पास पूजा करने के लिए कोई मूर्ती भी तो नहीं है। भगवान की मैं सुबह उठकर रोज़ पूजा करता हूँ। और यही वह मिट्टी है जिसमें इक्ष्वाकु वंश की परम्परा समाहित है। प्रतापी राजाओं की स्मृति लिए है ये मिट्टी।

चंदन है भारत की माटी ,तपोभूमि हर ग्राम है ,

हर बालक देवी की प्रतिमा ,बच्चा बच्चा राम है।

जयश्रीराम !







आज भारत में एक हज़ार करोड़ खर्च करके और कई जगह तो उससे भी ज्यादा राशि खर्च करके विशाल प्रांगण बनाये गए हैं देवताओं के लिए और कुछ पर अभी भी निरंतर काम चल रहा है और उन देवताओं का क्या जो आवासहीन फुटपाथों पर पड़े हैं कितना कुछ है जो किया जा सकता है ,एक सकारात्मक सोच की ज़रूरत है।

स्वामीजी उवाच

कितना बढ़िया हो यदि अमरीका भर में फैले  हिन्दू टेम्पिल पहल करें गुरुद्वारों सी -साधनहीन, विपन्न जो प्रतिभाएं अपने ज्ञान के बल पर विद्याध्यन के लिए अमरीका तक पहुँच जाती हैं उन्हें कमसे कम एक माह के भोजन और आवास की सुविधा निशुल्क मुहैया करवाएं। इससे उन्हें एक आधार मिलेगा और वह जीवन भर के लिए मंदिर के ऋणी हो जाएंगे।

मंदिर की मूर्तियों से हम ऐसे खेलते हैं जैसे बचपन में बालक गुड़िया गुड्डों से खेलते हैं उनके बनाव श्रृंगार पर हर बरस लाखों डॉलर खर्च कर देते हैं। ऋतुओं के अनुकूल उन्हें वस्त्र पहनाते हैं और जो साधन हीन दरिद्र नारायण बाहर घूम रहें हैं जिनके पास मौसम की मार से बचने के लिए पर्याप्त वस्त्र नहीं है। उनका  क्या ?उनके लिए सोचिये कुछ करिये।

सच कहता हूँ -मैं जब भोजन करता हूँ कई मर्तबा मन बहुत खिन्न हो उठता है। ये भोजन ,कितने ही हैं ऐसे हैं जिन्हें उपलब्ध ही नहीं हैं जबकि हम तमाम सुविधाओं से लैस सुरक्षित मौसम अनुकूलित आवासों में सुख से खा पी  रहे हैं। स्वामीजी ने कहा कितना अच्छा हो कुछ ऐसी वेबसाइटें हों जहां जाकर आप प्रतिदिन बस एक डॉलर का योगदान दे सकें उन साधन हीन विपन्न लोगों के लिए।

आज भारत में एक हज़ार करोड़ खर्च करके और कई जगह तो उससे भी ज्यादा राशि खर्च करके विशाल प्रांगण बनाये गए हैं देवताओं के लिए और कुछ पर अभी भी निरंतर काम चल रहा है और उन देवताओं का क्या जो आवासहीन फुटपाथों पर पड़े हैं कितना कुछ है जो किया जा सकता है ,एक सकारात्मक सोच की ज़रूरत है।

बहुत ही अंतरंग बातचीत में इस युवा उच्चशिक्षा संस्कारों से सिंचित  साधू ने हमारे साथ ये सब साझा किया है इस उम्मीद से कि हम भी आगे आएं।  इस कालम के माध्यम से मैं उन्हें नमन करता हूँ।आप सबका अपना आवाहन करता हूँ हम पहल करें।

"ओम नमोशिवाय "का -इस पंचाक्षरी बीज मन्त्र का अर्थ क्या है ?

ओम तो पूरक मन्त्र है जो सभी मन्त्रों को चैतन्य प्रदान करता है। 

"ना " (Na)का अर्थ स्वामीजी ने भूमि बतलाया। 

मा (Mah)का अर्थ जल। 

शि(Shi) का अर्थ अग्नि और 

वा (Vaa)का अर्थ वायु। 

तथा या(Ya) का अर्थ आकाश। 

हमारा मन और बुद्धि इन्हीं पांच तत्वों की बनी हैं।इसीलिए विश्व को प्रपंच कहा 

गया है। मन और बुद्धि को जड़। 

हमने अपने विचारों संस्कारों से आज इन पाँचों तत्वों को प्रदूषित कर दिया है। गुरु द्वारा निर्देशित मार्ग पर चलकर हम इन्हें शुद्ध करें। 

हमारे अंदर भूमि की स्थूलता पिघले इसका लय जल में हो ,जल का लय अग्नि में और फिर अग्नि का वायु में तथा वायु का विलय आकाश में हो। 

निरंतर स्थूल से सूक्ष्म की ओर है यह यात्रा। तभी सिद्धि मिलेगी। अपने मूल स्वभाव का बोध होगा। हमारी चेतना का उन्नयन होगा। हमारी  गति ऊर्ध्वाधर  होगी।  

इसका एक अर्थ है यह भी है मैं शिव को नमन करता हूँ अपने अंदर के शिवत्व को प्रणाम करता हूँ। अपने सच्चिदानंद स्वरूप का ध्यान करता हूँ।आपके अंदर जो दिव्यअंश है उस दिव्यता को प्रणाम करता हूँ।  

http://www.thespiritualsun.com/practices/texts/hindu/om-namah-shivaya

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

संगीत की सरस माधुरी में कब दो घंटे भूत काल हुए पता ही न चला। हनुमान चालीसा ने सम्मोहन से बाहर निकाला। भाव और रस दोनों का आस्वाद बदला और फिर ओम जय जगदीश हरे और हमेशा की तरह -वन्दे मातरम ,सुजलाम सुफलाम मलय जय.…।

Virendra Sharma ने Gunjan Sharma-Saini की चित्र साझा की.
कई मायनों में बेजोड़ रही समापन संध्या स्वामी नलिनानन्द गिरी जी के साथ। सुबह हिन्दू टेम्पिल कैन्टन में भजनों की रस धार बही।और संध्या को विचार संध्या। स्वामीजी ने हीरे परोसे और हमने दोनों हाथों से बटोरे।
नटवर नागर नंदा भजो रे मन गोविंदा … नलिनानन्द जी की वाणी भक्ति का उद्घोष कर रही थी अथर हुसैन साहब तबले पे संगत कर रहे थे। हारमोनियम पर अफगानिस्तान से आये एक भाईजान थे। तबले का रोम रोम गा रहा था -भजो रे मन गोविंदा। भजन का रूख कब सूफी शैली की गायकी की ऒर मुड़ गया श्रोताओं को पता ही न चला -
तुझे मिल गई पुजारन ,मुझे मिल गया ठिकाना ,
मुझे रास आ गया है तेरे दर पे आना जाना।
आबाद दिल को मेरे नाशाद न बनाना ,
अभी सांस चल रही है ,कहीं तुम चले न जाना।
तेरी बंदगी से पहले मुझे कौन जानता था ,
तेरी इश्क ने बना दी मेरी ज़िंदगी फ़साना।
बीच बीच में सूफियाना शायरी ने अपना समाँ बांधा -
किसी ने निकालके रख दीं हैं चौखट पे आँखें ,
इससे ज्यादा तो रोशन दीया हो नहीं सकता।
मिट्टी में मिलादे जुदा हो नहीं सकता ,
इससे ज्यादा तो तेरा मैं हो नहीं सकता।
तुझको खोकर मेरे हाथों की लकीरें मिटी जाती हैं ,
अब तो मेरे पास बचा कुछ भी नहीं।
फिर धमाल मचाया राधा (रानी) भाव ने कव्वाली शैली में -
किशोरी कुछ ऐसा कमाल हो जाए ,
जुबां में राधा राधा ,राधा नाम हो जाए।
तबला कहे के मैं भी हूँ ,स्वामी कहे मैंने कब इंकार किया। संगत हारमोनियम तबले की परवाज़ भरे -
गिरते हुए जब मैंने तेरा नाम लिया ,
तूने गिरने न दिया मुझे थाम लिया।
कभी कुछ ऐसा भी हो जाए ,
तेरे वृन्दावन में आएं हम ,
तेरे चरणों में सर झुकाएं ,
सारी उम्र वृन्दावन में ही तमाम हो जाए।
राधा भाव की भक्ति ने ऊंची ऊंची कुलांचे भरी ताली की ताल पे ,भक्ति रस की अविरल धार पे।
खुदा मुझे ऐसी खुदाई न दे ,
अपने सिवाय मुझे कुछ दिखाई न दे।
खुदा तो नाम है उस एहसास का ,
जो सामने रहे और दिखाई न दे।
संगीत की सरस माधुरी में कब दो घंटे भूत काल हुए पता ही न चला। हनुमान चालीसा ने सम्मोहन से बाहर निकाला। भाव और रस दोनों का आस्वाद बदला और फिर ओम जय जगदीश हरे और हमेशा की तरह -वन्दे मातरम ,सुजलाम सुफलाम मलय जय.…।
भजनसंध्या और विचार संध्या एक झलक
Gunjan Sharma-Saini Amit Saini और Virendra Sharma के साथ भाग्‍यशाली महसूस कर रहा/रही है
Meditation is listening to the divine within. A spiritually charged evening with Swami Nalinanand Giri Ji. Great food for mind & soul.